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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


स्‍वामिनी मुंशी प्रेम चंद
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कुछ दिनों के बाद शिवदास भी मर गया। उधर दुलारी के दो बच्चे और हुए। वह भी अधिकतर बच्चों के लालन-पालन में व्यस्त रहने लगी। खेती का काम मजदूरों पर आ पड़ा। मथुरा मजदूर तो अच्छा था, संचालक अच्छा न था। उसे स्वतंत्र रूप से काम लेने का कभी अवसर न मिला। खुद पहले भाई की निगरानी में काम करता रहा। बाद को बाप की निगरानी में काम करने लगा। खेती का तार भी न जानता था। वही मजूर उसके यहाँ टिकते थे, जो मेहनत नहीं, खुशामद करने में कुशल होते थे, इसलिए प्यारी को अब दिन में दो-चार चक्कर हार के भी लगाना पड़ता। कहने को वह अब भी मालकिन थी, पर वास्तव में घर-भर की सेविका थी। मजूर भी उससे त्योरियाँ बदलते, जमींदार का प्यादा भी उसी पर धौंस जमाता। भोजन में भी किफायत करनी पड़ती; लड़कों को तो जितनी बार माँगे, उतनी बार कुछ-न-कुछ चाहिए। दुलारी तो लड़कौरी थी, उसे भरपूर भोजन चाहिए। मथुरा घर का सरदार था, उसके इस अधिकार को कौन छीन सकता था? मजूर भला क्यों रियायत करने लगे थे। सारी कसर प्यारी पर निकलती थी। वही एक फालतू चीज थी; अगर आधा पेट खाय, तो किसी को हानि न हो सकती थी। तीस वर्ष की अवस्था में उसके बाल पक गये, कमर झुक गयी, आँखों की जोत कम हो गयी; मगर वह प्रसन्न थी। स्वामित्व का गौरव इन सारे जख्मों पर मरहम का काम करता था।
एक दिन मथुरा ने कहा- भाभी, अब तो कहीं परदेश जाने का जी होता है। यहाँ तो कमाई में बरकत नहीं। किसी तरह पेट की रोटी चल जाती है। वह भी रो-धोकर। कई आदमी पूरब से आये हैं। वे कहते हैं, वहाँ दो-तीन रूपये रोज की मजदूरी हो जाती है। चार-पाँच साल भी रह गया, तो मालामाल हो जाऊँगा। अब आगे लड़के-बाले हुए, इनके लिए कुछ तो करना ही चाहिए।
दुलारी ने समर्थन किया- हाथ में चार पैसे होंगे, लड़कों को पढ़ायेंगे-लिखायेंगे। हमारी तो किसी तरह कट गयी, लड़कों को तो आदमी बनाना है।
प्यारी यह प्रस्ताव सुनकर अवाक् रह गयी। उनका मुँह ताकने लगी। इसके पहले इस तरह की बातचीत कभी न हुई थी। यह धुन कैसे सवार हो गयी? उसे संदेह हुआ, शायद मेरे कारण यह भावना उत्पन्न हुई। बोली- मैं तो जाने को न कहूँगी, आगे जैसी इच्छा हो। लड़कों को पढ़ाने-लिखाने के लिए यहाँ भी तो मदरसा है। फिर क्या नित्य यही दिन बने रहेंगे। दो-तीन साल भी खेती बन गयी, तो सब कुछ हो जायगा।
मथुरा- इतने दिन खेती करते हो गये, जब अब तक न बनी, तो अब क्या बन जायगी! इस तरह एक दिन चल देंगे, मन-की-मन में रह जायगी। फिर अब पौरूख भी तो थक रहा है। यह खेती कौन संभालेगा। लड़कों को मैं चक्की में जोतकर उनकी जिंदगी नहीं खराब करना चाहता।
प्यारी ने आँखों में आँसू लाकर कहा- भैया, घर पर जब तक आधी मिले, सारी के लिए न धावना चाहिए, अगर मेरी ओर से कोई बात हो, तो अपना घर-बार अपने हाथ में करो, मुझे एक टुकड़ा दे देना, पड़ी रहूँगी।
मथुरा आर्द्र कंठ होकर बोला- भाभी, यह तुम क्या कहती हो। तुम्हारे ही सॅंभाले यह घर अब तक चला है, नहीं रसातल में चला गया होता। इस गिरस्ती के पीछे तुमने अपने को मिट्‍टी में मिला दिया, अपनी देह घुला डाली। मैं अंधा नहीं हूँ। सब कुछ समझता हूँ। हम लोगों को जाने दो। भगवान ने चाहा, तो घर फिर संभल जायगा। तुम्हारे लिए हम बराबर खरच-बरच भेजते रहेंगे।
प्यारी ने कहा- जो ऐसा ही है तो तुम चले जाओ, बाल-बच्चों को कहाँ-कहाँ बाँधे फिरोगे।
दुलारी बोली- यह कैसे हो सकता है बहन, यहाँ देहात में लड़के क्या पढ़े-लिखेंगे। बच्चों के बिना इनका जी भी वहाँ न लगेगा। दौड़-दौड़कर घर आयेंगे और सारी कमाई रेल खा जायगी। परदेश में अकेले जितना खरचा होगा, उतने में सारा घर आराम से रहेगा।
प्यारी बोली- तो मैं ही यहाँ रहकर क्या करूँगी? मुझे भी लेते चलो।
दुलारी उसे साथ ले चलने को तैयार न थी। कुछ दिन जीवन का आनंद उठाना चाहती थी, अगर परदेश में भी यह बंधन रहा, तो जाने से फायदा ही क्या। बोली- बहन, तुम चलतीं तो क्या बात थी, लेकिन फिर यहाँ का कारोबार तो चौपट हो जायगा। तुम तो कुछ-न-कुछ देखभाल करती ही रहोगी।
प्रस्थान की तिथि के एक दिन पहले ही रामप्यारी ने रात-भर जागकर हलुआ और पूरियाँ पकायीं। जब से इस घर में आयी, कभी एक दिन के लिए अकेले रहने का अवसर नहीं आया। दोनों बहनें सदा साथ रहीं। आज उस भयंकर अवसर को सामने आते देखकर प्यारी का दिल बैठा जाता था। वह देखती थी, मथुरा प्रसन्न है, बाल-वृंद यात्रा के आनंद में खाना-पीना तक भूले हुए हैं, तो उसके जी में आता, वह भी इसी भाँति निर्द्वंद्व रहे, मोह और ममता को पैरों से कुचल डाले, किन्तु वह ममता जिस खाद्यल को खा-खाकर पली थी, उसे अपने सामने से हटाये जाते देखकर क्षुब्ध होने से न रूकती थी। दुलारी तो इस तरह निश्चिंत होकर बैठी थी, मानो कोई मेला देखने जा रही है। नयी- नयी चीजों को देखने, नयी दुनिया में विचरने की उत्सुकता ने उसे क्रियाशून्य-सा कर दिया था। प्यारी के सिरे सारे प्रबंध का भार था। धोबी के घर से सब कपड़े आये हैं, या नहीं, कौन-कौन-से बरतन साथ जायेंगे, सफर-खर्च के लिए कितने रूपये की जरूरत होगी। एक बच्चे को खाँसी आ रही थी। दूसरे को कई दिन से दस्त आ रहे थे, उन दोनों की औषधियों को पीसना-कूटना आदि सैकड़ों ही काम व्यस्त किए हुए थे। लड़कोरी न होकर भी वह बच्चों के लालन-पोषण में दुलारी से कुशल थी। देखो, बच्चों को बहुत मारना-पीटना मत। मारने से बच्चे जिद्दी या बेहया हो जाते हैं। बच्चों के साथ आदमी को बच्चा बन जाना पड़ता है। जो तुम चाहो कि हम आराम से पड़े रहें और बच्चे चुपचाप बैठे रहें, हाथ-पैर न हिलायें, तो यह हो नहीं सकता। बच्चे तो स्वभाव के चंचल होते हैं। उन्हें किसी-न-किसी काम में फॅंसाये रखो। धेले का खिलौना हजार घुड़कियों से बढ़कर होता है। दुलारी इन उपदेशों को इस तरह बेमन होकर सुनती थी, मानों कोई सनककर बक रहा हो।
विदाई का दिन प्यारी के लिए परीक्षा का दिन था। उसके जी में आता था कहीं चली जाय, जिसमें वह दृश्य देखना न पड़े। हा! घड़ी-भर में यह घर सूना हो जायगा। वह दिन-भर घर में अकेली पड़ी रहेगी। किससे हॅंसेगी-बोलेगी। यह सोचकर उसका हृदय काँप जाता था। ज्यों-ज्यों समय निकट आता था, उसकी वृत्तियाँ शिथिल होती जातीं थीं।वह कोई काम करते-करते जैसे खो जाती थी और अपलक नेत्रों से किसी वस्तु को ताकने लगती। कभी अवसर पाकर एकांत में जाकर थोड़ा-सा रो आती थी। मन को समझा रही थी, यह लोग अपने होते तो क्या इस तरह चले जाते। यह तो मानने का नाता है; किसी पर कोई जबरदस्ती है? दूसरों के लिए कितना ही मरो, तो भी अपने नहीं होते। पानी तेल में कितना ही मिले, पिर भी अलग ही रहेगा।बच्चे नये-नये कुरते पहने, नवाब बने घूम रहे थे। प्यारी उन्हें प्यार करने के लिए गोद लेना चाहती, तो रोने का-सा मुँह बनाकर छुड़ाकर भाग जाते। वह क्या जानती थी कि ऐसे अवसर पर बहुधा अपने बच्चे भी निष्ठुर हो जाते हैं।
दस बजते-बजते द्वार पर बैलगाड़ी आ गयी। लड़के पहले ही से उस पर जा बैठे। गाँव के कितने स्त्री-पुरूष मिलने आये। प्यारी को इस समय उनका आना बुरा लग रहा था। वह दुलारी से थोड़ी देर एकांत गले मिलकर रोना चाहती थी, मथुरा से हाथ जोड़कर कहना चाहती थी, मेरी खोज-खबर लेते रहना, तुम्हारे सिवा मेरा संसार में कौन है, लेकिन इस भम्भड़ में उसको इन बातों का मौका न मिला। मथुरा और दुलारी दोनों गाड़ी में जा बैठे और प्यारी द्वार पर रोती खड़ी रह गयी। वह इतनी विहृवल थी कि गाँव के बाहर तक पहुँचाने की भी उसे सुधि न रही।

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